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साठोत्तरी हिंदी ग़ज़ल में विद्रोह के स्वर

भावना कुँअर

प्रकाशक : अयन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7909
आईएसबीएन :978-81-7408-348

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लेखिका ने इस पुस्तक में ग़ज़ल के उद्भव एवं उत्तरोत्तर विकास की जानकारी दी है...

Sathottari Hindi Gazal - A Hindi Book - by Bhavana Kunwar

...सच पूछो तो ग़ज़ल एक बग़ावत है, स्वयं से भी और समाज से भी क्योंकि ग़ज़लकार जब समाज में विसंगतियाँ देखता है तो वह विद्रोही हो उठता है और जब उसे अपनी ग़ज़ल के माध्य से प्रकट करता है तो जनता भी विद्रोह करने पर उतारू हो जाती है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि सर्वप्रथम दुष्यन्त कुमार ने आम आदमी की ज़िन्दगी में झाँककर देखा और उन्होंने उसके दुःख-दर्द को समझकर व्यवस्था के खिलाफ़ ग़ज़लें कहीं, किन्तु आज लगभग हर ग़ज़लकार व्यवस्था के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द कर रहा है। एक समय था जब ग़ज़ल सिर्फ हुस्नो-शबाब और मुहब्बत पर ही लिखी जाती थी मगर अब वह उन फ़िज़ाओं से निकलकर विषमताओं से भरे ऊबड़-खाबड़, जीवन-पथ पर कदम बढ़ाकर चल रही है। जहाँ जनता भूख से बिलखती हो वहाँ कौन सौन्दर्य की चर्चा करेगा ?

—पुस्तक का एक अंश

साठोत्तरी हिन्दी ग़ज़लों में राजनीतिक परिस्थितिगत विद्रोह


स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात जब संसद एवं विधान सभाओं का गठन हुआ तो उस समय जो सासंद एवं विधायक निर्वाचित हुए उनमें से अधिकांश वे व्यक्ति थे जिन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु किये गये प्रयत्नों में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। देश को स्वतंत्र कराने के लिए जिन्होंने अपना तन-मन-धन सब कुछ अर्पित कर दिया था, शासन की बागडोर हाथ में आने पर वे उसकी उन्नति हेतु निरन्तर प्रयासरत रहे। कालान्तर में वह पीढ़ी काल के गाल में समाती चली गयी और उनका स्थान वे नेता लेने लगे जो या तो अंग्रेज-परस्तों की सन्तान थे अथवा जो स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु किये गये बलिदान की महत्ता से सर्वथा अनभिज्ञ थे। ऐसे नेताओं का आविर्भाव छठे दशक के उपरान्त होना प्रारम्भ हुआ। इस समय राजनीतिक क्षेत्र में जो उथल-पुथल हुई उसने एक जन-विद्रोह को जन्म दिया, क्योंकि जिन नेताओं के हाथों में देश की बागडोर सौंपी गयी, उन्होंने राष्ट्र-हित की अनदेखी करनी शुरू कर दी। यही जन-विद्रोह जहाँ एक ओर लेखकों एवं कवियों की लेखनी से आक्रोश बनकर फूट पड़ा वहीं दूसरी ओर हिन्दी ग़ज़लकारों ने भी इन तखाकथित नेताओं के चरित्र को उजागर करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। आखिरकार इन नेताओं की कुम्भकर्णी नींद को तोड़ने के लिए इन्हें आगे आना ही पड़ा।

जो सो रहे हैं उनको जगाने के वास्ते
कहने पड़े हैं शेर हमें चीख़ते हुए

—डॉ. उर्मिलेश

साठोत्तरी हिन्दी ग़ज़ल में राजनीतिक परिस्थितगत विद्रोह विभिन्न रूपों में प्रस्फुटित हुआ है। इन नेताओं पर कोई नैतिक अंकुश न होने के कारण ये अपनी मनमानी करने लगे जिसके कारण चारों ओर अशान्ति एवं हिंसा का बोलबाला हो गया। देश के विभिन्न गाँवों एवं नगरों में होने वाली हिंसा एवं लूटपाट से जनता त्रस्त हो उठी। समाचार पत्र इन्हीं घटनाओं के समाचारों से भरे रहने लगे—

कभी कश्मीर, अमृतसर, कभी आसाम लुधयाना
कभी अख़बार की सुर्खी में जालंधर नज़र आते

—अश्विनी कुमार पाण्डेय

इन आपराधिक-प्रवृत्तियों के नेताओं की शह से आतंकवाद को बढ़ावा मिला। इन आतंकवादियों ने धर्म-स्थलों को अपनी शरण-स्थली बना लिया। इनके द्वारा चारों ओर किये जाने वाले बम विस्फोटों से निरन्तर धन एवं जन की क्षति होने लगी। आये दिन होने वाले दंगे-फ़सादों से जनता का सांस लेना दूभर हो गया। सारा देश एक कत्लगाह बनकर रह गया। चारों तरफ जो आग भड़की हुई है उसके पीछे सियासत है। सियासत की हवा में इस कदर ज़हर बिखरा हुआ है कि सारी शान्ति व्यवस्था छिन्न-भिन्न होकर रह गयी है। अच्छा भला आदमी अन्धा हो गया है लेकिन इसकी ज़िम्मेदारी लेने को कोई भी तैयार नहीं है। आज की स्थिति तो ऐसी हो गयी है कि जो मसीहा हुआ करते थे वही कातिल बन बैठे हैं। देश की इस विस्फोटक स्थिति का हिन्दी ग़ज़लकारों ने अत्यन्त सूक्ष्मता से जायज़ा लेकर जो ग़ज़लें लिखीं वे ग़ज़ल-साहित्य में मील का पत्थर साबित हुईं।

आँख के पानी से वो बुझ जाये अब मुमकिन नहीं
जिस सियासी आग को दहका रही है ये हवा

आजकल बहती है मन्दिर-मस्जिदों के बीच में जो
नाम उसका है सियासत वो बड़ी कातिल नहर है

—अनिल ‘असीम’

शान्ति का उपदेश देकर कल गए थे, आज पर
बन रहे क़ातिल मसीहा, यूँ जला मेरा नगर

—डॉ. श्यामवीर सिंह रघुवंशी

मंदिरों में भी जहाँ खंजर छुपे रहते ‘कुमुद’
ढूँढ़ते हैं उस शहर में, सर छुपाने की जगह

—डॉ. कुमुदिनी नौटियाल

कितनी शर्मनाक स्थिति है कि जिन जन-प्रतिनिधियों को निर्वाचित कर संसद एवं विधान सभाओं में इसलिए भेजा जाता है कि वे राष्ट्र-हित में कार्य करेंगे, उन्होंने जनता के सामने अपनी ऐसी छवि प्रस्तुत की है जिससे उनका सिर शर्म से झुके या न झुके किन्तु जनता अवश्य शर्मसार हो गयी है। काका हाथरसी के शब्दों में—

वो संसद आज की तहज़ीब से संसद नहीं, जिसमें-
न चप्पल है, न जूता है, न थप्पड़ है, न गाली है

एक समय था जब गाँधी, नेहरू, शास्त्री जैसे महान नेता हमारे देश के कर्णधार थे, किन्तु आज के नेतओं में कोई भी ऐसा नज़र नहीं आता जो देश को उन्नति के पथ पर ले जा सके। भ्रष्टाचार में लिप्त होते हुए भी आज के नेता अपने आपको दूध का धुला होने का दावा करते हैं। इतना ही नहीं वे अपने मुँह मियाँ-मिट्ठू बनने की कहावत को भी चरितार्थ करते हैं। अच्छा नेता मिलना तो आज के युग में एक स्वप्न मात्र बनकर रह गया है—

दर्पण में अपना चेहरा तो सबको प्यारा लगता है
जिसको सब अपनाएँ ऐसा चेहरा केवल सपना है

—डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल

आज के नेता का जो चेहरा हमें दिखाई देता है, वह उसका असली चेहरा नहीं है। सबके चेहरों पर एक बनावट का खोल सा है। यहाँ सभी रूप बदल-बदल कर मिलते हैं, इनके हज़ारों रंग हैं जिनको पहचानना नामुमकिन है। वे मंचों पर चिल्ला-चिल्ला कर झूठे आश्वासन देकर स्वार्थसिद्धि में लगे हुए हैं। हर नेता अपने मुख पर भलेपन का मुखौटा लगाए फिरता है जिससे खरे-खोटे की पहचान करना बड़ा मुश्किल हो गया है—

चेहरों पे और चेहरे लगाए हुए हैं लोग
यूं अपनी असलियत को छुपाए हुए हैं लोग

—डॉ. राणा प्रताप गन्नौरी

इन राजनेताओं की असलियत जानते हुए भी डर के कारण जनता उसे उजागर करने की हिम्मत नहीं जुटा पाती। वह इतनी भयभीत हो चुकी है कि उनके सामने आते ही इनके होश गुम हो जाते हैं—

अरमान थे कि उनके मुखौटे उतार दें
दहशत, कि उनके सामने गुम होश हो गये

—उर्मिल सत्यभूषण

हिन्दी ग़ज़लकारों ने साठोत्तरी राजनीतिक व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार के ऊपर बहुत कुछ लिखा है। भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था को ‘काँच का शामियाना’ बताते हुए डॉ. कुँअर बेचैन ने क्या ख़ूब कहा है—

इस चिलकती धूप में कुछ और ज़्यादा ही जले
सर पै हम ताने हुए थे, शामियाने काँच के

सत्ता में आने के लिए ये नेतागण वर्ग-विशेष की वोट हथियाने के लिए देश को प्रान्त, भाषा, धर्म, जाति आदि के नाम पर निरन्तर बाँटते जा रहे हैं और देश को तोड़ने में लगे हुए हैं जब कि इनका फर्ज़ था बिखरे हुए देश को एक करना, लेकिन वे खुद ही देश को बाँटने में लग गये। हमें देश के ऐसे दुश्मनों से सम्भलने की ज़रूरत है तभी हम इस बन्दर-बाँट को रोक सकते हैं—

बाग सबका था, मगर यह आज सारा बँट गया।
नीड़ जिस पर कल बने थे, पेड़ अब वो कट गया

—डॉ. श्यामवीर सिंह रघुवंशी

जिनपे जिम्मा था कि करते एक बिखरे देश को
वो ही ‘निर्झर’ देश को खुद बांटने में लग गए

—नारायण दास ‘निर्झर’

आज की राजनीति केवल वोट की राजनीति बनकर रह गयी है। वोट माँगने के लिए ये नेतागण दर-दर भटकते तो फिरते ही हैं, नित नये-नये हथकंडे भी अपनाते हैं। इस राजनीतिक प्रदूषण ने आपसी सौहार्द, भाईचारा, तीज-त्यौहारों पर होने वाले सम्मिलन, गाँव की चौपालों पर होने वाली बैठकों आदि को समाप्त कर दिया है। आज परिवारों का विघटन, आपसी वैमनस्य, एक दूसरे के प्रति असहिष्णुता की भावना आदि इस राजनीतिक प्रदूषण की ही देन है। इन राजनेताओं ने इन्सान को ही नहीं बाँटा, बल्कि भगवान को भी बाँटकर अपने-अपने सम्प्रदायों के बन्दी-गृहों में कैद कर लिया है। इन्होंने ऐसे ज्वलन्त प्रश्न जनता के सम्मुख प्रस्तुत कर दिये हैं जिनका उत्तर जनता को ढूँढ़ने से भी नहीं मिलता और ये जलते हुए सवाल महज वोट के लिए पैदा किये गये हैं। इन वोटों की बैसाखियों ने तो इन नेताओं को लँगड़ा ही कर दिया है—

वोट की बैसाखियों ने कर दिया लँगड़ा
उनके दोनों पाँव की चर्चा नहीं करना

—डॉ. वीरेन्द्र शर्मा

आज चुनाव भी पैसे और गुंडागर्दी के बल पर जीते जाते हैं। सीधा-सादा इन्सान तो चुनाव में खड़ा होने की सोच भी नहीं सकता, क्योंकि उसे या तो गुंडों से मरवा दिया जाता है या फिर ‘बूथ केप्चरिंग’ करके उसे हार का मुँह देखने के लिए विवश कर दिया जाता है। चुनाव जीतने पर ये राजनेता स्वयं को भगवान समझने लगते हैं। फिर तो इनके दर्शन भी दुर्लभ हो जाते हैं। इनकी तो इतनी ही मेहरबानी बहुत है कि ये पाँच साल बाद (या मध्यावधि चुनाव या उपचुनाव होने पर कुछ पहले भी) पुनः सताने आ जाते हैं। इन तथाकथित राजनीतिक नेताओं की वोट की राजनीति आज देश को रसातल में पहुँचा रही है। इनकी फ़ितरत तो देखिए—जो आज चन्द वोटों को पाने के लिए कुत्ते की तरह दुम हिलाते फिरते हैं वे ही चुनाव जीत जाने पर भेड़िये नज़र आने लगते हैं। यदि आप इनसे जन-हित की अपेक्षा रखते हैं तो यह आपकी भूल है। इस सम्बन्ध में इनसे गिला-शिकवा करना भी व्यर्थ है—

हमने समझा टल गये हैं, पाँच बरसों के लिए
उपचुनावों के बहाने, फिर सताने आ गये

वोट दे दे वोट दे दो, बड़बड़ाने आ गये
फिर हमारी लाश को कंधा लगाने आ गये

दुम हिलाता फिर रहा है चंद वोटों के लिए
इसको जब कुर्सी मिलेगी, भेड़िया हो जाएगा

—हुल्लड़ मुरादाबादी

मत करो उनसे शिकायत कि भुलाये वादे
वोट तो मांगने घर आये, यही क्या कम है

—मधुप शर्मा

आज कुर्सी पाने के लिए चारों ओर आपा-धापी मची हुई है। कुर्सी एक है और प्रत्याशी अनेक हैं। यह तो ‘एक अनार सौ बीमार’ वाली कहावत हुई। राजनीति की नगरी में एक ऐसा भी बाज़ार आपको देखने को मिलेगा जहाँ कुर्सियों की सेल लगती है और वहाँ से काले धन से खरीदी हुई कुर्सी को पाकर ये फूल नहीं समाते। कुर्सी पाकर तो इनकी वही हालत हो जाती है जो कंगाल की ख़जाना पाकर हो जाती है। कुर्सी मिल जाने पर तो ये अपने परिवेश से भी अनजान हो जाते हैं। जिन गिद्धों की निगाहों में हर समय कुर्सियाँ ही तैरती हों, वे भला, भोली जनता का क्या भला कर सकेंगे ?

कर सकेंगे किस तरह वे भोली जनता का भला
तैरती जिनकी निगाहों में सियासी कुर्सियां

—यादराम शर्मा

मसला यह फिर से हो गया संगीन क्या करें
कुर्सी है एक, आदमी हैं तीन क्या करें

—किशन स्वरूप

कुर्सी मिली है जब से सुल्तान हो गये तुम
परिवेश से भी अपने अन्जान हो गये तुम

कुर्सी को पाके ऐसे बेहाल वो हुए हैं
कंगाल को मिले हों जैसे गड़े खज़ाने

—माधव मधुकर

कुर्सियों की सेल जिसमें लग रही है हर तरफ
इस नगर में आजकल ऐसा भी एक बाज़ार है

—अनिल ‘असीम’

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